खूँटी पर टॅंगी
पिताजी के पैंट की जेब मे,
ऐरियाँ उचकाकर,
जब भी हाथ सरकाता रहा,
नोटों के बीच दुबकी हुई,
अठन्नी हाथ आती रही,
जैसे आज फिर आई हो क्लास,
बिना होमवर्क किए,
और छुप कर जा बैठी हो,
कोने वाली सीट पर !
और हर दफ़ा,
बहुतेरे इरादे किए,
के गोलगप्पे खा आऊंगा
चौक पर से या,
बानिए की दुकान से,
खरीद लाऊँगा चूरन की पूडिया,
क्योंकि सोनपापडी वाला अठन्नी की,
बस चुटकी भर देता है,
और गुब्बारे से तो गुड़िया खेलती है,
मैं तो अब स्याना हो गया हूँ.
या फिर,
ऐसा करता हूँ
के चुप चाप रख लेता हूँ इसे,
अपने बस्ते की उपर वाली चैन मे,
के जब भी आनमने ढंग से,
पेंसिल ढूँढने कुलबुलाएँगी उंगलियाँ,
शायद सिहर जाएँगी,
इसके शीतल स्पर्श से.
पर अभी अभी
वो बर्फ वाला आया था,
तपती दुपहरी मे,
अपना तीन पहिए वाली गाड़ी लुढ़काते,
और ले गया है वो अठन्नी ,
उस गुलाबी वाली बर्फ के बदले,
जिसकी बस सीक़ बची है,
बर्फ पिघल चुकी है,
कुछ ज़बान पर,
कुछ हाथो मे,
और फिर से अठन्नी हो गयी है,
इस जेब से उस जेब,
ठीक उम्र की तरह!
जाने कितने सिक्के बचे हैं ,
ज़िंदगी की जेब मे,
जेबें बदलनी की,
मुराद से,
मुराद से,
और छोड़ जाने को
ज़बान पर थोड़ी सी ठंडक,
और हाथो मे
एक नाकाम सी सीक!
खैर हाथ सरका कर,
एक और अठन्नी,
निकाल ही लाते हैं.
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Drop in a few words. It brings smile on my face.